मैं जुगनुओं को पनाह देता हूँ
तुम्हारी गुफ्तगू में मेरा कोई जिक्र नही है
तब जाना कि कोई फिक्र नही है
ये मौसम ही खुदाई का
तुमसें कोई रुसवाई नही है
यही सोचकर मैंने वक़्त गुज़ारा है
तेरी यादें ही तो ज़ीने का सहारा है
फ़क़त यही सोचकर बशर कर रहा हूँ
तू है तभी तो ज़िन्दगी का गुजारा है
मैं जुगनुओं को पनाह देता हूँ
दर्द भीतर अपने छिपा लेता हूँ
मेरे हर किस्से की तुम दास्तां हो
हर हर्फ़ में बस तुम बसी होती हो
सफ़ीना भी अक्सर किनारा ढूँढता है
अंधेरे में हर कोई उजियारा ढूँढता है
आसमाँ में उड़ने वाला पंक्षी अक्सर
जमीं पर बैठने को आशियाना ढूँढता है
भूपेंद्र रावत
6।01।2020