मैं चला हूं
दूर क्षितिज पर मंजिल है
मैं चला हूं छूने
अपनी मंजिल
जब कदम साथ हो
तो डरने की क्या बात हो
गवाही देगा कंठ मेरा
पीड़ा सही बहुत
मगर कभी ना ठहरा
निशाँ छोडूंगा मैं ,*अपनी* फिजा में
बहुत हैं जिनको रास्ता दिखाना है
आंच नहीं आने दूंगा उनपर
बेशक खुद को तपाना है
मेरे पद चिन्हों पर चिंगारी मिलेगी
तुमको आसानी होगी जलने में
दिशा पर नजरें गड़ाए रखना
क्षितिज पर भौहें चढाए रखना
ओझल ना होने देना मंजिल को
उठने देना धुँआ अंदर से शब्दों की
बनने देना तुम मशाल पंक्तिबद्ध छंदों की
पिपासा को घुमने देना पुरी शरीर में
निकालने देना बूँद-बूँद
मन अंदर से
अक्षर दिशा देंगे
जनसैलाब को
वो होगा एक शमशीर
दुर्बल के हाथ में
वो जितेगा मैदान भी
जब होंगे तेरे शब्द साथ में
मंजिल पर नजर रहने देना
धारा को अपने अंदर बहने देना
कविता को सरिता बनते देखना
बस क्षितिज पर प्रहार कर
शब्द रूपी भाला फेंकना
कदम कमाल कर देंगे
ह्रदय तेरा शब्दावली भर
विशाल कर देंगे
लेकर इतना कुछ साथ
में चला हूँ क्षितिज पर
वार करने
धूर्त,पाखंडी जयचंदों से बचाकर
कविता को तट पार करने
प्रवीण माटी