मैं घाट तू धारा…
मैं बनारस का घाट तू गंगा की धारा
तेरा स्पर्श पावनी मैं पावन हुआ सारा
प्रीत अर्घ्य हर लहर दे दे हुआ पत्थर
तू बह निकली देखा न मुड़ के दोबारा
वो बूँदों की पायल किरणों के कंगन
वो मेरे उर आँगन छम छम छम नर्तन
वो इठलाना वो शर्माना वो बलखाना
कैसे भूलूँ मैं वो मदमाता आलिंगन
बुत बना बैठा रहा कैसे तुझको पाऊँ
जो तू तराश दे तेरे काबिल बन जाऊँ
कभी तो ठहर बैठ पार मन के कछार
मन मंदिर में गूंजती नेह घंटियाँ सुनाऊँ
बैठा रहा लिए हथेली कुमकुम हल्दी
ठुकरा कर प्रीत मेरी तू आगे चल दी
गुहार लगाई दी दुहाई हुई न सुनवाई
सागर से मिलने की बड़ी थी जल्दी
रेखांकन।रेखा
१९.८.२३