मैं घर आँगन की पंछी हूं
मैं घर आंगन की पंछी हूं
उड़ने की चाहत है मेरी
पर पंख कतरने की आदत
क्यों जालिम दुनिया है तेरी?
उन्मुक्त गगन को छूना है
बस यही आरजू है मेरी
शूल बिछे हों राहों में
रुकने की फितरत ना मेरी।
माता पिता के अरमानों को
पूरा करना चाहती हूं
लक्ष्य साधने की खातिर
मैं मस्त मगन हो जाती हूं।
जब सपने सच हो जाते हैं
तब गीत खुशी के गाती हूं
कभी शिक्षिका कभी डॉक्टर
कभी नर्स कहलाती हूं।
होठों पर मुस्कान लिए
जब ड्यूटी करने जाती हूं
पड़े नजर शैतानों की
मैं घुट घुट कर मर जाती हूं।
मुझको भी अधिकार मिला है
आजादी से जीने का
पर किस से अभिव्यक्त करूं
मैं अपना दुखड़ा सीने का?