मैं गुज़रा हुआ वो ज़माना नहीं हूँ
मैं गुज़रा हुआ वो ज़माना नहीं हूँ
नदी का सिमटता किनारा नहीं हूँ
बहाना कोई भी बनाता नहीं हूँ
समझते हो जैसा मैं वैसा नहीं हूँ
तुझे हक़ नहीं इस तरह सोचने का
किसी और का हूँ मैं तेरा नहीं हूँ
जिये जा रहा हूँ मैं साँसों की धुन पर
हक़ीक़त हूँ कोई फ़साना नहीं हूँ
मुसलसल सहे रंजोग़म ज़िन्दगी के
मगर इम्तिहानों में हारा नहीं हूँ
मुझे कोई ओझल निगाहों से कर दे
मैं जर्रा तो हूँ पर वो जर्रा नहीं हूँ
मेरी ज़िन्दगी आइने सी है ‘आनन्द’
मैं चटका तो हूँ फिर भी बिखरा नहीं हूँ
– डॉ आनन्द किशोर