मैं खुशियों की शम्मा जलाने चला हूॅं।
गज़ल
122/122/122/122
मैं खुशियों की शम्मा जलाने चला हूॅं।
मैं भटकों को रस्ता दिखाने चला हूॅं।1
रहे हैं अधूरे जो भी ख्वाब अब तक,
कि मैं ऐसे सपने सजाने चला हूॅं।2
हॅंसी एक पल को जो दे मुफ़लिसों को,
मैं वो प्रेम बंशी बजाने चला हूॅं।3
जो पीड़ित हैं उनके गमों को भुला दे,
गज़ल गीत नग़में सुनाने चला हूॅं।4
ग़रीबी का नाम-ओ-निशां रह न जाए,
गरीबों को जड़ से मिटाने चला हूॅं।5
जो हिन्दू है मुस्लिम हैं सिख औ’र इसाई,
मैं इंसा सभी को बनाने चला हूॅं।6
मिटे दुश्मनी औ’र नफ़रत की दुनियां,
मैं प्रेमी हूं उल्फत सिखाने चला हूॅं।7
……..✍️ सत्य कुमार प्रेमी