मैं खुद से कर सकूं इंसाफ
कभी कभी ये जीवन
लगता है अर्थ हीन
मेधा और आभा से
परे बस एक मशीन
बेपटरी से ही बीत रहे
जीवन के तमाम दिन
सोचा हुआ कभी सधा
नहीं,सो मन रहे उद्विग्न
जोड़ घटाने में भी सदा से
रहा मानस मेरा कमजोर
अंतस में भी कहीं पैठा ही
रहा, आशंका भाव घनघोर
हे ईश्वर मेरे मन मानस को
कीजै शीशे की तरह साफ
दुनिया की चालों को समझ
मैं खुद से कर सकूं इंसाफ
मोह माया के चक्र से भी
रखिए दिल दिमाग को दूर
दुनिया में अपनी उपस्थिति
को सार्थक बना सकूं जरूर