” मैं “के चक्कर में , जब आ गया मैं!
जब तक मैं,
बिन” मैं “के था,
इसका ना कोई अता पता था,
अपनी मस्ती में ही खुश था!
ना जाने इसने कब आ दबोचा,
कभी ना मैंने इस पर सोचा,
अचानक एक दिन इसने,अहसास कराया,
जब छोटी सी किसी बात पर मैं, भड़क गया,
नहीं नहीं,ये नहीं हो सकता,
मुझे नहीं है इसका पता,
काम तुम्हारा है तुम ही लगाओ पता,
मुझ पर ना यह अधिकार जताओ,
मैं तो सबसे यही कहता हूं,
जितना हो सकता है मुझसे ,
मैं उतना ही करता हूं!
उस दिन से ही “मैं “ने अपना रंग दिखाना शुरु किया,
मुझमें घुस कर,अपना असर दिखाना शुरु किया,
तब से मैं उसके बुने जाल में फंसता गया,
ऐसा डूबा की फिर ना निकल पाया
ना ही मैं इसका अहसास कर पाया,
है कोई मुझ में समाया!
यह सबकुछ समय चक्र के साथ चलता रहा,
जब तक मुझसे रहता काम किसी का,
वह मिलने आ ही जाता भूला भटका,
और” मैं” अपने ही निराले अंदाज में,
कर के काम जो होता मेरे हाथ में,
जता दिया करता,
देखो, मैंने तुम्हारा काम शीघ्र कर दिया,
ना उलझाया ना टरकाया,
ना बार-बार तुमसे चक्कर लगवाया,
अब की बार मैं फिर से खड़ा हो रहा हूं,
तुम से अभी से कह रहा हूं,
समय आने पर, साथ मेरा दे देना,
अपने लोगों से भी कह देना,
जीत गए तो ऐसे ही काम आते रहेंगे,
यदि ना जीताया तो पछताएंगे!
आने जाने वाले आते जाते,
हां में हमारी वह हां मिलाते,
पूरा भरोसा कायम कर जाते,
कभी ना इसका भान हुआ,
लड गया चुनाव तो काम तमाम हुआ,
रह गया देखते यह क्या हुआ,
ऐसा यह कैसे हुआ,
करता रहा मैं यह विचार,
ऐसा क्यों किया मुझसे व्यवहार,
क्यों हो गई मेरी हार!
धीरे धीरे समय चक्र आगे बढ़ा,
आने जाने वालों का आना-जाना बंद हुआ,
मैं खाली समय गुजारता रहा,
अपने अन्य कार्यों में जूट गया,
एक दिन अचानक फिर से कोई आया,
मुझे पुकारने लगा,
मैं भी उत्सुकता वश बाहर आ गया,
आगंतुक ने दुआ सलाम किया,
फिर आने का अपना मंतव्य बता दिया,
मैंने संकोच करते हुए पुछ लिया,
भाई ये बता,
यह काम तो है उनका,
फिर तू मेरे पास क्यों आ गया,
उसने जो कुछ बयां किया,
मैं सिर से पैर तक सिहर गया,
कहने लगा,
हमने तो तुम्हें सबक सिखाने को,
था उसे खड़ा किया,
अब वह ऐंठ रहा है,
बहुत ज्यादा,
ठीक नहीं है ,
उसका इरादा,
ना समय पर मिलता है,
ना ही कोई काम सहजता से करता है,
लिखना पढ़ना भी नहीं आता उसे,
भेज देता है वह हमें,
पास किसी और के,
वहां से लिखवा कर ले आना,
मुहर तब मुझसे लगवा जाना।
गलत हमसे ये काम हुआ,
पछता रहे हैं सब यहां!
मैंने भी अपने अंदर झांक कर देखा,
अपने बिताए समय को याद किया,
कहीं तो मुझसे भी भूल हुई थी,
जिसके लिए इन्होंने यह चाल चली थी,
यदि “मैं” ने कुछ कर के जताया ना होता,
तो मेरा हार कर यह हस्र हुआ नहीं होता,
तब मेरे अंदर ही यह खोट आ गया था,
जो मेरे हाथ का काम था ,
उस पर अहसान जता रहा था,
अचानक यह मुझको क्या हो गया था,
आ रहा था समझ में,
यह मेरा ” मैं,”
मुझको चला रहा था,
यह मेरा ही “मैं,”
जो मेरा अपना नहीं हुआ,
इसके लिए मैं,
अपना सब कुछ लुटा रहा था।
अब जब समय चक्र ने,
जो निकल गया समय,
अपने वक्त पर,
चला गया ,असक्त कर,
छींण हो गया है आत्मबल,
समझ में आ रहा है इस,
“मैं “का छल,
क्यों पलने दिया मैंने इसे,
जो अनायास ही,
समा गया था मुझमें,
अहंकार बन।