मैं कुछ सोच रहा था
मैं कुछ सोच रहा था
मैं कुछ सोच ही ना पाया।
मैं कुछ देख रहा था
पर कुछ देख ही ना पाया।
मैं खुद की आंखें खोल रहा था
पर मन की आंखें खोल ही ना पाया।
हे क्या इस जहां में, यह जानना चाहा
पर मैं खुद को जान ही ना पाया।
वक्त के साथ दौड़ रहा था
पर मैं कहीं, जा भी न पाया।
सांसों की डोर बंधी है कहीं
जिसे खोलना चाहा
पर खोली ना पाया।
उड़ते हैं जो, आजाद पंछी की तरहा
पर मैं कभी, उड़ ही ना पाया।
जब समझ आया
खुद को जमीन पर ही पाया।
ना अब कोशिश की उड़ने की
पर, खुद को मैंने उड़ाते ही पाया
कौन जुड़ा है यहां किसी से
पर, यहां जुड़ने का कोई सार, समझ ही ना आया।