मैं कुछ नहीं समझती
मैं समझती हूं कि
मैं कुछ नहीं समझती
मैं ये भी नहीं समझती
कि मैं क्या नहीं समझती
मैं दिए के नीचे दुबके अंधेरे को देखती तो हूं
मगर तेल और बाती के समन्वय से जन्मी
रौशनी से उसकी दुश्मनी को नहीं समझती
अपने बगीचे में खिले गुलाब की
रंग और खुशबू को देखती महसूसती तो हूं
पर गुल को कूट पीस के
गुलकंद क्यूं बनाया गया
धरा से आई थी धरा में ही खाद बन
मिल जाने क्यूं नहीं दिया गया …
मैं ये भी नहीं समझती
अपने आस पास के दुनियां में
आधी आबादी को मचलते इठलाते
घर से बाहर तक मेहनत के झंडे गारते
देखती तो हूं, खुश हो मुंह उनका तकती तो हूं
मगर उनके छाती के उभारों और
जांघों के बीच के ढेढ़ इंच के हिस्से में
उनकी तमाम पहचान को गर्त होने को
मैं कतई नहीं समझती
मैं कुछ भी नहीं समझती
~ सिद्धार्थ