मैं कुछ- कुछ बदलने लगी हूं –
पहले खुश होती थी अपनों की ख़ुशी से,
अब खुश अपने से होने लगी हूं।
ज़िंदगी का आधा पड़ाव,
धूप और उमस में गुज़ार दिया,
अब खुद छांव में रहने लगी हूं।
बड़ी चाह थी सबको आगे बढ़ा दूं,
अब खुद भी आगे मै बढ़ने लगी हूं।
एक उम्मीद थी कि ख़ुश कर दूंगी सबको,
मगर विफल हो ख़ुश अब मैं रहने लगी हूं।
जग को बदलने का छोड़ा इरादा,
अब मैं तो खुद को बदलने लगी हूं।
मै चौराहे की तस्वीर भला क्यों सुधारूं,
मै खुद की ही तस्वीर को बदलने लगी हूं।
मैं क्यों दूसरों के अवगुणों को निहारूं,
देखकर पर गुणों को संवरने लगी हूं।
करूं काम जो भी मेरा दिल जो चाहे,
मैं अब अपने दिल की ही सुनने लगी हूं।
जब रिश्तों में चलने लगा दिमाग़,
फैला आपस में अलगाव तो ,
रेखा चुप हो वक्त की नज़ाकत को समझने लगी हूं।