मैं कविता बनाता हूँ
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मैं कविता बनाता हूँ,
लिखता नहीं सजाता हूँ;
भावों से, विचारों से
सद्बुद्धि से;
निर्मोही हो अलगाता हूँ।
ख़ुद से जुदा कर,
स्वयं पर इठलाता हूँ;
मैं कविता, बनाता हूँ।
एक, कविता में झोंक,
अपनी सारी मनोवृत्तियाँ,
सारी सामर्थ्य समर्पित कर,
दुखी इस बात से कि,
अब कविता कैसे बनाऊँगा?
किसी नज़्म को कैसे जिलाऊँगा?
त्रस्त, बेकार,
रुख़सत होती मेरी साँसें
बस थमने को ही होती हैं;
कि,
एक नई कृति का प्रादुर्भाव होता है।
एक नई साँस, नूतन जज़्बात
नवोदित शब्द कोंपलें,
मेरे मन पुष्प के पंखुड़ियाँँ को,
हल्के से हलकाती हैं,
और एक नवोद्भावित कविता बन जाती है।
…“निश्छल”