मैं और मुझे
मुझे जाना है कहीं दूर, इंसानों के जंगल में,
अभी हूं फलक पर, आसपास सितारे,
दो चक्के पर सवार तारते हुस्न को हमारे ।
उगता सूरज, ढलती शाम, कराहती रागिनी,
मरहम इश्क के लगाते पुराने चोट पर हमारे ।।
मैं कहता हूं मुझे जाना है कहीं दूर, नुमायश के बस्ती में, अभी हूं अंधेरे में, आसपास उजाले,
चकाचौंध जमाना,
इश्क बंद कहीं अंधेरे पुराने कमरे में, हैं लटक रहे ताले,
लगाना इश्क का बाजार है,
करने रंग उजाले, को है अब काले ।।
आशिकों की भीड़ होगी,
दीवानों की टोली होगी,
मोहब्बत की बोली होगी,
बिस्तर पर बिक रहे इश्क, भोली होगी ।।
दीवानों की मल्लिका होगी,
अत़्फ की लगी तालिका होगी,
चाहतों का सैलाब होगा,
उभरते यौवन को चखने खातिर, दिल ये बेताब होगा ।।
मुझे जीना है, किसी गहरे हकीकत के सपनों को,
जहां तेरी बंदगी होगी,
किसी और संग तेरे दिल्लगी होगी,
अफसाने झूठे फिर सरेआम होंगे,
तराने गाने को फिर हम गुमनाम होंगे,
साथ जीने मरने के तेरे झूठे पैगाम होंगे,
टूटेगा ख्वाब, जो बेशक मोहब्बत के अंजाम होंगे ।।
अनजान हूं, अपनों की बस्ती है,
एकल ठहरा यहां, साथ भी कहां सस्ती है,
महंगे हैं बोल यहां लोग ही फरेब हैं,
झूठा कौन, माटी के इंसां या इंसां के रब हैं ।।
– निखिल मिश्रा