मैं अश्वत्थ मैं अस्वस्थ
मैं अश्वत्थ मैं अस्वस्थ
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हां! हां! हूं मैं अश्वत्थामा
भाल पे लिए अविरत ज़ख्म
फिरता हूं मैं मारा मारा।। ध्रु।।
जंगलों में घूमने वाला मुंह छुपाके फिरने वाला
कोई कहता मुझे चिरंजीवी तो कोई कहे देवात्मा
कोई सोचे बैरागी तो कोई कहे पुण्यात्मा
हां! हां! हूं मैं अश्वत्थामा
भाल पे लिए अविरत ज़ख्म
फिरता हूं मैं मारा मारा।।१।।
दरबदर भटकता हूं जो आज, एक बूंद तेल की, रक्खे मेरी लाज
सीने में दफन लाखों तूफान, मेरे दर्द की न कोई पहचान
ज़ख्म को मेरे कोई तो सराहे, आकर मेरे पास कोई बैठ जाए
हां! हां! हूं मैं अश्वत्थामा
भाल पे लिए अविरत ज़ख्म
फिरता हूं मैं मारा मारा।। २।।
बवंडर सीने में उठा हैं जो आज ,सुनाना चाहता हूं दिल के राज
दरिद्र्य दहलीज पे देखे बड़ा हुआ पानी मिलाया आटा,दूध समझ पिया हुआ
चिरंजीवी हूं यह श्राप या वरदान जख्म दिल की किसको करू बयान
हां! हां! हूं मैं अश्वत्थामा
भाल पे लिए अविरत ज़ख्म
फिरता हूं मैं मारा मारा।।३।।
शस्त्र अस्त्र तथा शास्त्र में पारंगत मैं पर पहनने वस्त्र नहीं , जानता हूं मैं
छुप छुप के फिर रहा वनों जंगलों में ,समझे भाव मेरे ऐसा ज्ञाता न मिले
कभी रहता गिरनार पे, तो कभी निरंकार ,कभी त्र्यंबकेश्वर तो कभी रामेश्वर
हां! हां! हूं मैं अश्वत्थामा
भाल पे लिए अविरत ज़ख्म
फिरता हूं मैं मारा मारा।। ४।।
हुई मुझसे एक ही गलती पड़ गया था मैं कुसंगती
गलत पलड़े में पड़ा था यहीं जीवन का दुखड़ा था
फल इसका पाया क्या मैंने श्राप ताप से पीडित किया उसने
प्रतिशोध और विनाश तो अटल था मैं तो शिवांश ये क्यों न समझ पाया
हां! हां! हूं मैं अश्वत्थामा
भाल पे लिए अविरत ज़ख्म
फिरता हूं मैं मारा मारा।।५।।
मंदार गांगल “मानस”
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्। जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।