मैं अपराजिता हूँ, मैं मृतुन्जय हूँ
मैं अपराजित हूं,
मेरे अनेक रूप
मैं मृतुन्जय हूँ,
चार बार मृत्यु द्वार से बापस आया
कारण मैंने “अति ” को अपने
जीवन के स्पर्धा को छूने नहीं दिया
मनुष्य के जीवन में “अति’
क्षती स्पर्धा लाती है
एवं जीवन सम्पूर्ण रुप से त्राही त्राही हो जाती है |
मैं विनाश हीन,
मैं क्षय हीन,
मैं जन्म हीन,
मैं मृत्यु हीन
मैंने सबकुछ खोया
पर स्वयं को नहीं,
मैं था, मैं हूं, मैं रहूंगा,
भूत मेँ विचरण करता नहीं,
भविष्य के सपने देखता नहीं,
वर्तमान मेँ रहता नहीं..
मैं था, मैं हूं, मैं रहूंगा
मैं करता हूं विचरण “क्षणों ” मेँ…
मैं अपराजित हूँ
मैं मृतुन्जय हूं ?