मैंने सुबह की तबियत पूछी
मैंने सुबह की तबियत पूछी
जो जोर जोर से खाँस रही थी,
मैंने दोपहर की तबियत पूछी
जिसे बहुत तेज बुखार था,
मैंने रात की तबियत पूछी
जो जोर जोर से नाच रही थी।
मैं गाने को था पर गा नहीं पा रहा था,
जाने को था पर जा नहीं पा रहा था,
सुनने को था पर सुन नहीं पा रहा था,
देखने को था पर देख नहीं पा रहा था।
ऐसा नहीं था कि हर क्षण ठंडा था
किसी के चेहरे पर मुँहासे थे
तो किसी का चेहरा साफ था।
इतिहास का चेहरा देखा तो
एक ओर खून से लथपथ था,
तो दूसरी ओर शान्त भाव से भरा था।
आगे चला तो देखा सूरज निकल रहा था,
दिन की तबियत सुधर चुकी थी,
गुनगुनी धूप बाहर से भीतर आ रही थी।
*** महेश रौतेला