मैंने रातों में चंदा को
मैंने रातों में चंदा को
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सरल हृदय के हर कोने को, नंदन वन महकाते देखा
मैंने रातों में चंदा को, हँसकर नीर बहाते देखा।
तारों के दीपित शिविरों में
रातों के तिरपाल तले,
विदा हुआ जब अर्क डूबता
अंधकार फुफकार चले।
वीर वेश में खद्योतों को, तंतु-तंतु हर्षाते देखा
मैंने रातों में चंदा को, हँसकर नीर बहाते देखा।
नभ के उपवन में हर्षित हो
पंछी नेह लुटा बैठे,
निरख थके मन श्वेत सिंधु के
मंदाकिनी भुला बैठे।
निर्मोही उस नीलगगन को, छाती बहुत फुलाते देखा
मैंने रातों में चंदा को, हँसकर नीर बहाते देखा।
चर्चाओं में देवलोक के
मानवीय गुण ही छाते,
पाँव पसारा जब से कलियुग
गंगोदक अब ना भाते।
अंत दाँव में, सहनशील को, दारुण कष्ट उठाते देखा
मैंने रातों में चंदा को, हँसकर नीर बहाते देखा।
…“निश्छल”