मैंने खुद को बदलते भी देखा है
मैंने खुद को बदलते भी देखा है
गिरते और सम्भलते भी देखा है
फिसलते और फिर चलते भी देखा है
बिखरते और सिमटते भी देखा है
खुद को समझने की लिप्सा(चाहत) से
मैंने खुद को निगलते भी देखा है…..
कच्चा हूँ अभी भी मैं,पर पकते भी देखा है
भला हूँ या बुरा,इस द्वंद में उलझते भी देखा है
सुलझाऊं इस उलझन को जल्द ही मैं
मैंने खुद को ये कहते भी देखा है
चलता रहेगा यूँ ही, ये खुद को खंगालने का दौर
‘होगा’ ‘मिलेगा’ वही सब कुछ ‘मंजुल’
जो किस्मत और कर्मों का लेखा है
मैंने खुद को बदलते भी देखा है।।।
©®।।मंजुल ।।©®