मैंने कभी हाॅंथ उठा कर दुआ नहीं मांगी
मैंने कभी हाॅंथ उठा कर दुआ नहीं मांगी
न ही कभी किसी मन्दिर में
पत्थरों के देवता से कोई आशीष मांगी
हाॅं झूठ नहीं कहूंगी
कई बार जोड़े थे हाॅंथ … पर
बन्द ऑंखों में आराध्य की मूर्ति साकार नहीं हुई थी
अंतर्मन से कभी कोई प्रार्थना नहीं छलकी थी
न ही कभी भींगी थी ऑंख मेरी
इष्ट के सामने … मंगता की तरह
अपनों की खुशी के लिए बस किए थे सारे प्रयास
मन कहीं और होता था
और तन दूसरों को खुश रखने के जद्दो जहद में
अपने जो मेरे भीतर ही अपना – अपना
अलग – अलग स्थान बनाए
कुंडली मारे बैठे हुए हैं
इन सभी में तुम्हारा स्थान विशिष्ट रहा
तुम अपनों से ज्यादा अपने हो गए थे
तुम जाने कब …
माॅं , सखी, सहच और गुरु हो गए थे
अब सोचती हूॅं … किसी दिन
तारों से भरा अनंत आकाश
जिसमे फैला हो चाॅंद का प्रकाश
उसे देखते हुए … इक दुआ छोड़ दूॅं
अपनी अंगुलियों के गिराहों को फोड़ दूं
कि तुम और तुम्हारी मुस्कान सदा सलामत रहे
किसी भी कठिन समय में न गिरे
ज्युॅं चाॅंद नहीं गिरता
ज्यूॅं तारे नहीं गिरते
और ज्यूॅं नहीं गिरता आकाश कभी थक कर …
तुम भी सदा बने रहना खुशबाश
आकाश में फैले प्रकाश की तरह
~ सिद्धार्थ