मैंने कब सोचा था…
मैंने कब सोचा था …
मेरी छांव में रहेगा मानुष खुशी- खुशी ..
जब परछाई पड़ी और की रहता दुखी – दुखी ।।
मैंने कब सोचा था…
इत देखो चाहे उत देखो ..
में रहता हूँ हर जगह ।
धूप कड़ी हो या छाया ..
में दिखता जगह – जगह ।।
मैंने कब सोचा था…
रात घनेरी हो या उजली ..
में रहता हूँ आस -पास।
कब में गौरा कब में काला ..
न होता कभी अहसास ।।
मैंने कब सोचा था…
जब फिरता समय का पहिया ..
नाम पड़ता , बदला मौसम ।
किस मौसम मैं सुख देता हूँ..
किस मौसम देता हूँ दुख ।।
मैंने कब सोचा था ..
इक रात सुहानी मुझसे..
सुहाना दिन का मौसम ।
इक रात घनेरी मुझसे..
डरता है हर एक मानव ।।
मैंने कब सोचा था ..
कभी छूपाता हूँ उसको ..
रहता आगोश में उसके ।
कभी उसी से डरता हूँ..
आँचल में छुपकर उसके ।।
मैंने कब सोचा था ..
इक मौसम मानव डरता है ..
इक मौसम करता प्यार.।।
इस मौसम में अच्छा हूँ ..
उस मौसम की करता तकरार ।।
मैंने कब सोचा था …
मेरी छांव में रहेगा मानुष सुखी – सुखी ।
जब परछाईं पड़ी और की रहता दुखी – दुखी ।।
आर एस बौद्ध”आघात”
9457901511