मैंने अपनी मंजिल ना पाई…
जीवन के गुमनाम सफर में
मिला न कोई सच्चा हमदम
एक राह पर चलने, न हुआ तैयार प्रीतम
डूब रहा हूं मैं लेहरो में
नजर न आया कोई माझी,कोई हमदम
कैसी ये मुश्किल की बेला
खड़ा हूं मैं बस अकेला
बंधी हुई थी जिनसे आसा
थोड़ी लगती मुझे निराशा
सपना देखा एक ही मैंने,वो भी चकनाचूर कोई
बफा महक आती थी जिनसे
वो भी मुझसे दूर हुई
अब डूब ही जाऊं उन लहरों में
बचने का,ना करूं जतन कोई
जीवन का कोई अर्थ नहीं है
बे अर्थों का कैसा जीवन
अपनों से मैं कैसे सम्भलू
विधि न मैंने कभी बनाई
मुझे मिली जहां रुसवाई
फिर भी मैंने वफ़ा लुटाई
अपना सब लुटा बैठा हूं
फिर भी अपनी मंजिल ना पाई
फिर भी मंजिल ना पाई…..
रंजीत घोसी