मेहनतकश
हर शब् की तारीकी
उम्मीद के सूरज बुझा देती है
लौट आता हूँ सब्र के साथ
रात की स्याही में अपने गम
आंसुओ में ढाल बहा देता हूँ
मजदूर हूँ माज़ूर नही हूँ साहब
अपनी जिम्मेदारियों की गठरी
खुद उठाता हूँ यूँ की
दामन में पैबंद लाख सही
पर हाथ नहीं फैलाता हूँ
मजदूर हूँ माज़ूर नही हूँ साहब
दिल है खुद्दारी से लबरेज़
मेहनतकश हूँ साहब
मै मजदूर इसी दुनिया का
क्यों नकारते हो मुझे ,
मेरे रुखे मैले हाथों से
मेरे लिबास ओ तन से साहब
इसी कायनात का ज़रूरी सा
एक हिस्सा ही तो हूँ साहब
मजदूर हूँ माज़ूर नही हूँ साहब