मेरे हाँथ कुल्हाड़ी कर दो
फूट गर्त में खींच रही है सबको कर आगाह रहा हूँ
पिछड़ी है गाड़ी समृद्धि की मिलकर इसे अगाड़ी कर दो।।
सालों रहा कुएं का मेढक, मैं सदियों गुमराह रहा हूँ,
दिखा प्रेम की राह दृष्टि को बंदा एक जुगाड़ी कर दो।।
कैसी विष की फसल उगायी, दुख से भरी आज अंगनाई,
कोई बीज नेह के बोकर काश पाट दे आकर खाई,
झंझट कहीं, कहीं पर झगड़ा, दुर्बल को हड़काता तगड़ा,
चोट बहुत खाता नाजुक दिल जब लड़ते हैं भाई भाई,
भारत माँ का मैं जख्मी दिल तन्हा पड़ा कराह रहा हूँ,
तुम चाहो तो इस धरती पर सुख की खेती बाड़ी कर दो।।
खिलने के मौसम हैं सौ सौ, केवल पतझड़ जातिवाद है,
घर की स्वादयुक्त खिचड़ी में निकला कंकड़ जातिवाद है,
कोशिश करो समझने की तुम समझदार हो समझोगे,
आरक्षण है वृक्ष विषैला पर इसकी जड़ जातिवाद है,
इसीलिए तो मैं इस जड़ को, काट डालना चाह रहा हूँ,
कदमताल कदमों को देकर, मेरे हाँथ कुल्हाड़ी कर दो।।
संजय नारायण