मेरे हमसफ़र
एक आहट सी होती है,
तो लगता है कि तुम हो।
कोई खिड़की कही खुलती है
तो लगता है कि तुम हो।।
हो नही रु-ब-रु तो क्या मेरे,
सरीक-ए-हयात भी तुम हो।।
हो गयी हूं कुछ बेपरवाह सी,
खुद से,मेरी बरहम भी तुम हो।।
भटके हो दर-ब-दर शिकस्ता से
पैहम सफर-ए-जिस्त भी तुम हों।।
✍संध्या चतुर्वेदी।।
मथुरा यूपी
पैहम -लगातार
शिकस्ता- थका हुआ
बरहम -परवाह करने वाला
सफर ए जिस्त-जिंदगी का सफर
सरीके हयात-हमसफ़र