मेरे सपनों का अब रहा ये हिन्दुस्तान नहीं
मेरे सपनों का रहा अब यह हिन्दुस्तान नहीं
ना हिन्दू, हिन्दू रहा ,मुस्लिम,मुसलमान नहीं
जमी पर दो गज जगह कहा मयसर सबको
धुंआ हो गया आसमाँ भी रहा वो आसमाँ नहीं
मिटा दे अपनी निशांनीयों को तू भी मेरे ख़ुदा
मंदिर मस्जिद तेरे रहने के अब कोई मकाँ नहीं
देख मासूम परिंदों पे अपने जौहर ना दिखाना
कही तेरे हाँथो में इनके लिए तीर कमान नहीं
बेपनाह मेरी आँखों में पानी भर आया मेरे मौला
हार गया किस्मत से चेहरे पर कोई थकान नहीं
लोगों के हाथ में पत्थर अशोक सूरते हालात बदले
आईना सच बोल देगा कही वो भी बेजुबाँ तो नहीं
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से
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