मेरे शब्दों की बेनी पे !
क्या नया हो जाएगा
नए साल में ?
जो खुश होजाऊं, इतराऊं, जश्न मनाऊं ।
क्या गिद्धों के चोंच गिर पड़ेंगे
भेड़ियों के रक्तपिपासु दांत गिर पड़ेंगे ?
या जिनके आँख में सूअर के बाल पड़े हैं,
वो बाल गिर पड़ेंगे,
एक ही रात में ?
मैं नहीं मानती,
कि अपने लालों के चीथड़े बटोरती औरतें,
एक ही रात में सुतवती हो जाएँगी।
मैं नहीं मानती कि लूटी हुई इज्जत लिए
कानून का दरवाज़ा खटखटाती औरतों को
रातो रात न्याय मिल जायेगा ।
मैं ये भी नहीं मानती
कि कश्मीर से कन्या कुमारी तक
जितनी भी वनितााओं पर
शोषण और अत्याचार हुए
पशुओं कि मौत मिली
जिनके मरने तक को खराब किया गया
उन्हें उस लोक में भी न्याय मिलेगा
इस एक रात में।
फिर काहे का उल्लास
किस बात का जश्न।
मैं तो भरी हुई हूँ गुस्से की आग से
अपने गुस्से को खाद पानी दे रही हूँ
ताकि आँच ठंढी न परे
भोर होते ही उग आये
मेरे शब्दों कि बेनी पे !
***
28 -12 -2018
मुग्धा सिद्धार्थ