मेरे रहनुमाओं ने भी दी हैं शहादतें…
मेरे रहनुमाओं ने भी दीं हैं शहादतें,
साहिबे-वतन किसी के बाप का थोड़ी है…
आज का मौसम है बेरंग बेढंगा,
अभी झुलस रहा था तन,
है अब सर्द बर्फ़ीला ज़लज़ला,
वे कैसे मुस्कराते हैं अब भी,
जब हुआ जीना यहाँ महँगा ।
विदा हुई चमन की शांति है,
उन्हें किस बात की भ्रांति है,
जल रहा है देश आपस की घृणा से,
वे मजे में हैं नामसमझ जनता की बला से,
आज मैं मर जाऊँ गम नहीं कोई मुझे,
क्या गारंटी है कि ये कल बख्खसेंगे तुझे ।
आवाज़ तेरी धीमे से उठा गया कोई,
उस वेमुला को फाँसी पर चढ़ा गया कोई ।
तब से लेकर आज तक तू,
खुशियाँ मना रहा था,
गर है बाकी आवाज़ तेरे सीने में,
वो आवाज़ बन तू,
धीमे-धीमे ज़ालिम यहाँ,
फ़साने को तुझे जाल बुन रहा था ।
गर कोई आवाज़ उठी,
उसमें आवाज़ मिलने दो,
डाल पर बैठा है तन्हा एक पँछी अकेला,
उसको किसी का हमराह बनने दो ।
गर यूँ तन्हा वो अकेला रह जायेगा,
तब जालिम शिकारी,
बाज की मानिंद पँजों में जकड़ ले जाएगा ।।
कब आएगा होश तुझे,
तेरा सब कुछ लूटने वाला है,
आज पिटा रमुआ का,
तेरा नंबर कल आने वाला है ।
देख हश्र क्या तेरा होगा,
तू उसमें भी ख़ुश हो जाएगा,
क्यूँ इतना बैचेन है तुझे भी बेरहम बेमौत मारा जाएगा ।
“आघात”