मेरे मन के मीत
मेरे मन के मीत मुझसे
न विमुख हो,
प्रति प्रहर , वासर-निशा
मेरे सम्मुख हो।
हृदय की मेरी
वेदनाएँ,
चाहती तुम्हारी
संवेदनाएँ।
जन्मों से
दबी तृषाएँ,
ताकती हैं
अब आशाएँ॥
प्रीत की जो
यें गाँठें बँधीं हैं,
वर्षों की सिसकीं
गले में रुँधीं हैं।
दर्द की कोई
थाह नहीं है,
थाम ले जो
वो बाँह नहीं है।
आ गए हो तो
अब यूँ न जाना,
तड़प को अब
और न बढा़ना।
या तो साथ
उम्र भर निभाना,
वरना जीवन को
मेरे यहीं थाम जाना।
मीत मेरा कुछ तो
अधिकार दोगे,
मेरे मिटने को क्या
नहीं स्वीकार लोगे?
आग विरह की जो मैंने
अब तक झेली है,
तुम नहीं तो मृत्यु ही तो
अब मेरी सहेली है।
जानती हूँ आसाँ नहीं
कि तुम मुझे अपनाओगे,
विमुख न इस समाज से
तुम कभी हो पाओगे।
प्रेम को तो
त्याग की
रहती सदा
अभिलाषा है,
मिला है किसी को
अपना प्रेम क्या,
ये जानने की
जिज्ञासा है।
सोनू हंस