मेरे बेली के फूल
किसी अपने ने कहा
फूलों पे लिखो, खुशबु पे लिखो,
सफेद, सुगन्धि, शबनम
सी बेली के फूल पे लिखो
नहीं लिख पाई
बेली के फूल को शब्दों के
मोतियों के संग नहीं पिरो पाई,
कैसे कर पाती,
सदियाँ लगी थी मिट्टी को नरम बनाने में,
बीज को कोपलों तक लाने में,
जड़ों को दूर बहुत दूर तक फैलाने में,
प्राकृतिक आपदा से बचने में।
फिर जाके आया था, बसंत बहार
ले के सुंदर रंग-बिरंगी कलियाँ का सौग़ात,
खिलखिला के हंसने वाली थी उपवन सारी
रंगों और खुशबुाओं के अद्भुत मेल-मिलाप से
रचा जाने वाल था महाकाव्य
खुशबू और श्रीनगर से।
एक दिन आया हत्यरों का जघन्य फौज,
प्यार नहीं था जिनको रंगों और खुशबुओं से
कुचल गये वो उपवन को
मसल गये वो फूलों-कलियों को
पूरी फिजा में फैली खुशबू
मदमस्त करने वाली बदबू
खुनी पैरों को मालूम कहाँ था
फूल और कलियों जितनी
रौंदी और मसली जाएगी
खुशबू ,तेज बहुत तेज होती जायेगी।
मेरे सारे बेली के फूल
कुचल दिये गये, मसल दिये गये
अब नई शुरुआत करनी होगी
फिर मिट्टी ढ़ीली करनी होगी
बीज माटी में फिर से बोना होगा
खून और पसीने से उसे सींचना होगा
हिम्मत करनी होगी, हौसला करना होगा
तभी तो महकेगा ,गमकेगा
घर मेरा, देश मेरा,
तभी तो लिख पाऊँगी मैं
सुंदर सुगंधित बेली पे…
***
[मुग्धा सिद्धार्थ ]