मेरे बाबू
४ दिसम्बर २०११, एक ऐसा दिन जिसने मुझे मेरी अब तक की बीती जिंदगी में सबसे ज्यादा रुलाया और २०११ के बाद के भी ४ दिसम्बर दुःख भरे ही रहे हैं। भविष्य में और नाजाने कितने ऐसे तकलीफ देह ४ दिसम्बर देखने होंगे, ये तो ख़ुदा ही जाने।
शाम को तक़रीबन ६-७ बजे ही मैंने उन्हें एक चम्मच पानी पिलाया जो उन्होंने थोड़ी कराह के साथ पी लिया। रात को ठीक से नींद न लगने से अगले सवेरे जल्दी नींद खुल गयी। सुबह के कुछ साढ़े तीन बजे होंगे जब मेरी आँख खुल गयी। मेरे साथ बुआ थीं जो शायद रात भर सोई ही नहीं थीं। आँखे और आवाज़ भारी सी मालूम हो रहीं थीं।
“गोपाल, तनी एक चम्मच पानी अउर पियाय दय्या त।”
मैंने एक चम्मच पानी लिया और उनके मुँह में उड़ेल दिया जो अंदर तो शायद गया मगर उन्होंने वो घूँट से निगला नहीं था। दीदी (बुआ) ये सब देख रही थीं।
“पानी कहे नहीं पियत हैं। जा देख्या तयीं डाक्टर का त बुलाये ली आवा।”
मैं डॉक्टर के चैम्बर में पहुँचा और उन्हें कहा कि दीदी बुला रही हैं। आते ही उन्होंने नब्ज़ जाँची और कहा-
“इन्हें घर ले जाईये”
मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था। मैं सोच रहा था कि अभी तो ये ठीक भी नहीं हुये तो ये घर ले जाने को क्यों कह रहे हैं। मैं कुछ कहता इससे पहले ही दीदी ने मुझसे कहा कि पापा और चाचा लोग को मैं फ़ोन करके बुला लूँ। मैंने फ़ोन लगा कर दीदी को पकड़ा दिया।
वो उनसे कुछ बताकर मुझे फ़ोन देकर रोने लगीं…. वो मुझसे दूर हट गयीं ताकि मुझ तक ये ज़ाहिर न हो सके। पापा और तीनों चाचा आ गये। वो सब अपने में बात किये जा रहे थें। कैसे ले चलेंगे। सबको फ़ोन कर दो। इसको फ़ोन कर दो, उसको फ़ोन कर दो और बहुत कुछ। ये सब देख कर सुन कर अब मुझे सब समझ आने लगा था। अब मुझे इस बात का भान हो चुका था कि अब ‘बाबू’ (दादाजी) नहीं रहे हैं। अब उनके जिस्म का वज़ूद समाप्त हो चुका है।
मेरा मन रुआँसा हो रहा था। मेरे आँखों के आगे नाजाने क्या क्या चलने लगा मुझे कुछ एहसास नहीं हो रहा था। मेरा चिल्लाने का मन कर रहा था। जोर जोर से चिल्लाकर रोने का मन कर रहा था पर मैं कुछ नहीं कर पा रहा था सिवाय सिसकने के। मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये कैसे हो गया। अभी कल रात को ही तो मैंने उन्हें चम्मच से पानी पिलाया था और आज ये कैसे हो गया। अभी ३ दिन पहले ही तो तबियत बिगड़ी थी और हस्पताल में भर्ती कराया गया था। माना कि हालत गम्भीर थी मगर डॉक्टर ने तो कहा था कि जल्दी ही ठीक हो जायेंगे और शरीर से आराम भी मालूम हो रहा था मगर फिर ये कैसे हो गया।
१ दिसम्बर २०११, को मैं बहुत परेशान था और बहुत कुछ सोचकर परेशान भी हो जा रहा था। कभी कभी रोना भी आ रहा था। बाबू की अचानक बिगड़ी तबियत ने मुझे तोड़ दिया। उनकी वो हालत मुझसे देखी न जा रही थी। जमीन पर पीठ के बल लेटे कराह रहे थे वो। कुछ दूर पर थोड़ा सा खून गिरा था जो मुझे समझते देर न लगी कि हे मुँह से निकला खून है। और मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था बस चुपके चुपके रोये जा रहा था।
मैंने पापा को फ़ोन करके बाबू के हाल के बारे में बताया। पापा और चाचा कुछ देर में आ गये उन्हें हस्पताल ले जाया गया जहाँ उन्हें पहले दिन में कुछ आराम महसूस हुआ और डॉक्टर ने कहा कि कुछ ही दिन में ठीक हो जायेंगे।
मैं रात को हस्पताल में बाबू के साथ ही रहना चाहता था और सभी को ये ठीक भी लगा। अगले दिन सुबह बाबू के चेहरे पर आराम झलक रहा था। … पर खुदा की नाजाने क्या क्या मंशा थी… तक़रीबन ११:००-११:३० बजे होंगे जब वो बाथरूम गये और वहीं फ़र्श पर गिर पड़े। मेरे अंदर इतनी ताकत नहीं थी कि मैं उन्हें उठा सकता। मैंने तुरन्त चाचा को आवाज़ लगाई। बाबू को बेड तक ले जाते वक़्त जो खून के थक्के उनके मुँह से निकले वो मैं आज तक नहीं भुला पाया।
एकदम टूट सा गया। मैं अकेले में रो रहा था। भगवान से यही मना रहा था कि जल्द ही सब ठीक हो जाये मगर शायद मेरे मन की आवाज़ ख़ुदा तक पहुँच नहीं पायी और ४ दिसम्बर की वो काली सुबह हमें एक गहरा ज़ख्म दे गई।