मेरे नाम में बुद्घ निहित है ” सिद्धार्थ”
मेरे नाम में बुद्घ निहित है ” सिद्धार्थ”
पर मैं बुद्ध नहीं, बुद्ध होना भी चाहूं तो…
हो नहीं सकती, क्यूं कि…
मैं स्त्री हुं, स्त्री जिस के लिए खींचे गए है
अनदेखे लक्ष्मण रेखा,
जिस में जन्म से बोया गया है
यशोधरा और सीता के “जी” को
कहां संभव है किसी स्त्री का बुद्ध हो पाना
अंधेरे का हाथ पकड़, गेरुआ धारण कर पाना
और निकल जाना स्त्य के उजाले की तलाश में
और पलट कर भी न देखना गृहस्थी के आकाश को
मैं बुद्ध तो नहीं, मैं पुरुष तो नहीं, मैं स्त्री हूं…
कहां संभव है मुझ स्त्री के लिए
जो धारण तो करती है नाम
बुद्ध के कई नामों में से एक नाम “सिद्धार्थ” को
सत्य ढूंढती फिरुं बुद्ध होने के तलाश में …
जंगलों में बिना किसी अवकाश के
मन में लिए सत्य के विश्वास को
मेरे ही सत्य को कटघरे में खड़ा कर दिया जाएगा
मेरे ही सत्य से मेरे स्त्रीत्व का गला घोट दिया जाएगा
मुझे बुद्ध तो नहीं कुलटा,
चरित्रहीना साबित कर दिया जायेगा
बुद्ध होने के लिए,
उस से पहले इंसान होने के लिए
सत्य खोजने के लिए
जरूरी कर दिया गया है पुरुष होना
सत्य ढूंढ़ना और बुद्ध होना मेरा सरोकार नहीं
उससे भी पहले इंसान होना मेरी दरकार है,
और मुझे बस इस नारी दिवस पर
इतनी ही बात से सरोकार है कि
मैं ” सिद्धार्थ” बुद्ध नहीं इंसान होना चाहती हूं
सब के दुख में रोना सब के सुख में हसना चाहती हूं
मैं सबसे पहले और अंत तक इंसान ही होना चाहती हूं…
मैं किसी की भी मृत्यु को अपने ही
किसी अंश का अंत समझना चाहती हूं
मृत्यु को धर्म से रोना और हसना नहीं चाहती
किसी के मृतुभोज पे अटाहस से
अपने जी की जीजिवसा शांत नहीं करना चाहती
उसके आंशु से अपने ज़बान को खारा करना चाहती हूं,
मैं स्त्री हुं, स्त्री से बुद्ध नहीं
स्त्री से इंसान बनना चाहती हूं
मैं बस इंसान होना ही चाहती हूं
~ सिद्धार्थ