“मेरे तन मन को तू ही भायी री”
तेरा रूप अनूप संदल सी धूप
जैसे एक मरुस्थल में नलकूप
तेरे सागर सागर शोभित नैना
दम भर नहीं मेरे ह्रदय को चैना
अरी तू कौन कहां से आयी री
मेरे तन मन को तू ही भायी री……..
मेरा क्षण क्षण मेरा कण कण
तेरे रस भरें अधरों पर अर्पण
हर पहर तुझे नैनों में बसाऊँ
तू बन बैठी मेरे मन का दर्पण
मेरी सुभग खुशी बन तू आयी री
मेरे तन मन को तू ही भायी री……..
तेरी जीवंत मुस्कान थोड़ी थोड़ी
चंदन सी महकती तेरी पोरी पोरी
कैसे मैं प्यासे मन को समझाऊँ
मैं कैसे नैनों की प्यास बुझाऊँ
शीतल रस बन मुझमें समायी री
मेरे तन मन को तू ही भायी री………
तेरे सहज-सहज भाव अचल अचल
तुझे देख देख मेरी नस चंचल चंचल
बैठ निकट मेरे तू करूं अभिनन्दन
लब से लब टकराउं तुझे करूं चुम्बन
मुझे मस्ती घनेरी बहुतेरी छायी री
मेरे तन मन को तू ही भायी री……..
___अजय “अग्यार