” मेरे छोटे भाई का आना “
पहला अनुभव / प्रथम खुशी ( संस्मरण )
बात सन 1968 जुलाई की है हम सब कलकत्ता में रहते थे मैं दो साल की थी मुझसे बड़ी दो बहने और हैं इन दो बहनों के बीच की एक बहन की मृत्यु आखिरी वक्त में अम्माँ के गर्भ में ही हो गई थी ( इसकी भी बहुत दर्दनाक कहानी है फिर कभी ) । उस वक्त क्या आज भी एक बेटे की चाह सबको रहती है बस आज की तरह बेटे की चाह में बेटी की बलि नही चढ़ाई जाती थी , मेरी अम्माँ से ज्यादा बाबू को बेटे की चाह थी वो बात अलग है की हम तीनों बहने बाबू की ज़्यादा प्यारी – दुलारी – सर चढ़ी थीं….कलकत्ता में हमारे फैमली डा० थे डा० दत्ता वो अम्माँ को अपनी बेटी मानते थे सबसे बड़ी बहन ( दीदी ) को छोड़कर ( पहली संतान होने के कारण उसका जन्म हमारे गाँव में हुआ था ) हम सब भाई – बहनों का जन्म डा० दत्ता के हाथों ही हुआ था और सबसे बड़ी बात ये की कमरा भी हर बार वही था । चार बहनों के बाद डा० दत्ता ने अम्माँ से वादा किया की इस बार तुमको बेटा ही दूँगा ( ये उनका अम्माँ के प्रति प्रेम था ) समय से अम्माँ अस्पताल चली गईं थी हमें बताया गया की भाई आया है थोड़ी देर में हम तीनों बहनों को लेकर हमारे ड्राइवर साहब भी अस्पताल पहुँच गये । आज भी उस वक्त का एक – एक दृश्य एकदम चलचित्र की भांति आँखों के सामने दिखाई देता है ( मेरी याददाश्त भाई के जन्म से लेकर आज तक सब मेरे मस्तिष्क में वैसी की वैसी विराजमान है ) कमरे में अम्माँ बेड पर लेटी थीं बगल में पालने में हम बहनों का छोटा भाई लेटा था गुलाबी छिलकेदार ( नये आलू जैसा ) उसका बदन आज भी याद है अम्माँ मुझे अपने पास बुला रहीं थी लेकिन मुझे भाई के आगे कुछ सुनाई नही दे रहा था । थोड़े दिनों के बाद अम्माँ घर आईं मेरे पीठ की पूजा की गई ( वजह थी की मेरे बाद लड़के का आगमन ) मुझे इन सब किसी बात से कोई लेना – देना नही था मेरे लिए मेरे जीवन की सबसे पहली खुशी थी मेरे छोटे भाई का आना ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 19/10/2020 )