मेरे घर में कहीं भी परदे नहीं टंगे हैं
क्या कहूँ ?
इन उदास चेहरों के
बारे में
कभी गाँवों,
तो कभी शहरों में
कभी सड़कों,
तो कभी गलियारों में
जब भी पाती हूँ इन्हें मैं
जब भी देखती हूँ इन्हें मैं
खोए-खोए से रहते हैं
ये उदास चेहरे !
हाँ, यह उदास चेहरा !
किन्हीं जंगल-झंखाड़ों में नहीं
किन्हीं म्यूजियम
या जैविक उद्यानों में नहीं
बल्कि कैद है अपने घर में ही
और खुद के टाँगे गए
पर्दे की ओट में
यही तो विडंबना है-
कि यह चेहरा
अब भी
सबला नहीं बन पायी है।