मेरे अपने
उत्सव बन जाता
जीवन का सफर,
स्वयं को पाती हूं
और भी सक्षम,
जब होता है
अपने आस पास
अपनों के
होने का एहसास…..
खामोशी जब
डराने लगती है
और एकाकीपन
भयभीत करता है,
प्रदीप्त कर लेती हूं
हर राह
अपनत्व के आलोक से….
कुछ सजे नाम से
तो कुछ बेनाम भी,
कई रंगों में
महकते…
सबको रखती हूं
स्वार्थवश सहेज कर
आंखों की नमी
प्यार की गर्माहट से…..
शायद हूं..
उस लता की मानिंद
जो गर्व से मस्तक उठा
बढ़ती जाती
पेड़ का आश्रय पाकर ।।