मेरी सिरजनहार
अजस्र!
तुम सृजन से कोमल,
प्रलय से कठोर,
अतृप्त छोर!
कौन है तुल्य?
तेरा अतुल्य!
‘यस्याः पतरम् नास्ति’
परातीता!
अब कौन ‘अस्ति’?
कौन ‘नास्ति’?
तरु-तृण के तुहीन-कणों से-
तरल!
स्रोतस्वी प्रस्तर!
अतृप्त भरमाया,
छूटी न माया,
ढलती काया!
मैं निमज्ज मध्य धार,
ओ मेरी सूत्रधार!
काल-जीव का द्वंद्व अपार,
ग्राहग्रस्त गज रहा हार!
ओ मेरी सिरजनहार!
जीवित,स्कन्ध पर लाद-
छूटती छायाओं के गंध भार!
घड़-घड़ नाद
श्यामल कुंतल मेघ हार!
जीवन भी क्या?
भय विषाद अवसाद पूर्ण जीवन?
या कि
जैसे तुम –
‘यथा भूतं च भव्यं च न् बीभितो न् रिष्यतः।’