” मेरी सब्जी सारी जल गयी “
डॉ लक्ष्मण झा “ परिमल “
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सारी रात जग -जग के ,
एक कविता मैंने बनायी !
मंथन किया रूप दिया ,
सज संवर के सामने आयी !!
मन में मेरे ख्याल आया ,
सबसे पहले अपनी
श्रीमती को सुनाऊ !
अपनी रचनाओं का कौशल ,
उन्हें भी दिखाऊ !!
सुबह वो लगीं थीं ,
भोजन के इन्तिजाम में !
मैं भी लगा हुआ था ,
अपनी कविता के ध्यान में !!
मैंने कहा -” देखिये अपनी ,
कविता आपको मैं सुना रहा हूँ !
आप हमारी पहली श्रोता हैं ,
आपको अपनी प्रतिभा दिखा रहा हूँ “!!
उनकी स्वीकृति मुझे मिल गयी ,
उन्होंने कहा -” मुझे मधुर आवाज में
अपनी कविता सुना दें
ह्रदय मेरा जुड़ा दें !!”
मैंने भी यूँ कहा –
” तालिओं से मेरी हौसला ,
अफजाही करेंगे !
कविता मेरी अच्छी लगे तो ,
वाह-वाह भी करेंगे “!!
आवाध गति से हम ,
अपनी कविता पढने लगे !
कवि सम्मलेन की भंगिमाओं में ,
डूबने लगे !!
मुझे अपनी कविता पाठ का ,
आनंद आ रहा था !
अपनी कवि की प्रतिभाओं को ,
छलका रहा था !!
कुछ क्षणों के बाद ,
मेरी कविता समाप्त हुयी !
उनकी मौनता को देखकर ,
मेरी उत्सुकता जगी !!
मैंने पूछा -” मेरी कविता
कैसी लगी ?”
” छोडिये ……..अपनी इस कविता को ,
मेरी सब्जी सारी जल गयी !!”
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डॉ लक्ष्मण झा “ परिमल “
साउंड हेल्थ क्लिनिक
डॉक्टर’स लेन
दुमका
झारखण्ड
भारत