*मेरी व्यथा*
इस जग के करुण वेदन में,
करुणा के दीपों में,
कुछ नई सृष्टि की रचना में,
अलंकृत की वर्षा हो तुम,
मेरी इस व्यथा की रचना हो तुम।
जग का संहारक नर बन बैठा,
भावनाओं को नष्ट कर बैठा,
पथ में बोए कांटों को ऐसे,
द्वेष भाव में क्या कर बैठा,
इस अगोचर अंधकार की ज्योति हो तुम।
मेरी इस व्यथा की रचना हो तुम।
मैं समझा जग कुछ देगा,
कष्ट दिया जो भुला ना दूंगा,
बनकर मेरे उपहास का कारण,
मैं रो कर भी हंस ना पड़ूंगा,
इस कठिनाई के पथ के साथी हो तुम,
मेरी इस व्यथा की रचना हो तुम।
जग छोड़ दिया मैंने अब तो,
हाथ तुम्हारा थामा है,
तुम छोड़ ना देना मुझको यूं,
मुझको बस तेरा सहारा है,
इस पावन पवित्र बंधन के दाती हो तुम।
मेरी इस व्यथा की रचना हो तुम।।