मेरी माँ “हिंदी” अति आहत
रग-रग में आप ही बहती हैं,
सांसों में घुल-मिल रहती हैं…
बगियन में सुमनों-सी खिलती हैं,
उषा एवं शर्वरी-सी रम्य लगती हैं…
निशदिन इन पलकों पर निदिया बन टिकती हैं,
इन कोमल हस्तों पर चटक मेहंदी-सी चढ़ती हैं…
इन पांवों में महावर-सी रंगती हैं,
मुझे मुझसे भी अधिक समझती हैं…
अधरों पर शब्दांजलियों-सी सजती हैं,
कुछ अपनी कहती तो कुछ मेरी सुनती हैं…
मानों कभी मईया-सी बन अपार दुलार बरसाती हैं,
तो कभी कान पकड़ शिक्षिका-सी बहु पाठ पढ़ाती हैं…
कभी-कभी बहनों-सी चिढ़ती हैं,
तो कभी मेरी सखी बन जाती हैं…
कभी मेरे हर व्यवहार-सी लगती हैं,
तो कभी बे-पर स्वप्नों-सी उड़ती हैं…
कैसे कहूँ कि “हृदय” कितनी वेदनाएं सहती हैं,
मेरी “माँ” हिंदी प्रतिपल अपमान ज्वाला में जलती हैं…
(14 सितंबर, “हिंदी दिवस” के उपलक्ष्य में)
~ रेखा “मंजुलाहृदय”