मेरी माँ “हिंदी” अति आहत
रग-रग में आप ही बहतीं,
सांसों में घुल-मिल रहतीं।
बगियन में सुमनों-सी खिलतीं,
उषा एवं शर्वरी-सी रम्य लगतीं।
निशदिन इन पलकों पर निदिया बन टिकतीं,
इन कोमल हस्तों पर चटक मेहंदी-सी चढ़ती।
इन पांवों में महावर-सी रंगतीं,
मुझें मुझसे भी अधिक समझतीं।
अधरों पर शब्दांजलियों-सी सजतीं,
कुछ अपनीं कहतीं तो कुछ सुनतीं।
मानों कभी मईया-सी बन अपार दुलार बरसातीं,
तो कभी कान पकड़ शिक्षिका-सी बहु पाठ पढ़ातीं।
कभी-कभी बहनों-सी चिढ़तीं,
तो कभी मेरी सखि बन जातीं।
कभी मेरे हर व्यवहार-सी लगतीं,
तो कभी बे-पर स्वप्नों-सी उड़तीं।
कैसें कहूँ कि “हृदय” कितनी वेदनाओं को सहती,
मेरी “माँ” हिंदी प्रतिपल अपमान ज्वाला में जलतीं।
(14 सितंबर, “हिंदी दिवस” के उपलक्ष्य में)
-रेखा “मंजुलाहृदय”