मेरी पहचान
मुझसे मेरी पहचान ना छीनों
मेरा भी अस्तित्व है अपना
मुझसे मेरी जान ना छीनो,
किसने दिया अधिकार ये तुमको
मुझसे मेरी पहचान ना छीनो।
जिस घर में मैंने जनम लिया
जिस आंगन में मैं खेली थी,
जिन सखियों से बतियाती थी
जो गुड्डे गुड़िया मेरी सहेली थीं।
वो बाबुल का घर छूट गया
पनघट नदियाँ भी छूट गईं,
क्या और गुहार लगाऊं तुमसे
मुझसे मेरी पहचान ना छीनो l
पिया के घर पहुंची जैसी ही
वैसे ही सब कुछ बदल गया,
मेरी अपनी पहचान का सूचक
नाम तक मेरा बदल गया।
ये भी कैसी रस्म है बोलो
कैसा ये रिवाज़ है बनाया,
बाबुल का दिया नाम तो छोड़ो
उपनाम भी मेरा बदल दिया।
समाज के इन ठेकेदारों को
किसने ये अधिकार ये दिया,
घर आंगन सब कुछ छीन चुके हो
मुझसे मेरी पहचान ना छीनो।
ज्यों ही मैं निकली जब घर से
तरह तरह के बंधन हैं डाले,
मिलने जुलने पर भी मेरे
कैसे कैसे प्रतिबंध जड़ डाले।
तनख्वाह मेरी लगती है अच्छी
मेरा काम करना भी भाता है
फिर क्यूं झूठे अहम के खातिर
नसीहतों के पहाड़ हैं डाले।
थोड़ी देर जो हो घर आने में
सबकी आंखें सिकुड़ जाती हैं
कम से कम तुम तो समझो
मुझसे मेरी पहचान ना छीनो।
इस दो तरह के बर्ताव ने सबके
मन मेरा घायल कर डाला है,
क्या मेरा वजूद नहीं है कुछ भी
अस्तित्व भी नगण्य कर डाला है।
तभी तो मिल कर के तुम सब
मुझे मुझसे ही दूर कर रहे हो,
अपनी झूठी शान की खातिर
कोमल मन को कुचल रहे हो।
कब तक इस दुनिया में बोलो
वजूद मेरा नकारा जाएगा,
मुझको भी जीने दो खुलकर
मुझसे मेरी पहचान ना छीनों।
मुझसे मेरी पहचान ना छीनों।
संजय श्रीवास्तव
बालाघाट ( मध्यप्रदेश)