मेरी नासमझी थी वो..
मेरी नासमझी थी वो..
शाखों से लिपटी शबनम को
अपनी थरथराती उॅंगलियों से
छू लेना!
और ज़ुदा कर देना उनको..
हां सच! मेरी नासमझी थी..
मुट्ठी में छुपा कर कोने की धूप को..
सूरज को चिढ़ा देना!
पर उस नासमझी के दौर में
मैं बहुत हॅंसती थी.. मुस्कुराती थी!
पैरों पर लगी मिट्टी से मेरी अटूट दोस्ती थी..
नहर के जल के साथ दौड़ती हुई हवा को
अपनी बांहों में भर लेती थी,
कितना खिलखिलाती थी मैं..
डालियों से इमली तोड़कर..
और आज!
मैं मौन के साथ वैचारिक मंथन करती हूॅं!
अपना वो नासमझी का दौर..
बहुत याद करती हूॅं!
अपने काजल की ओट में छुपा कर,
अक्सर!
युवा ऑंसुओं से सींचकर..
जीवित अपना बचपन रखती हूॅं!
स्वरचित
रश्मि लहर
लखनऊ