मेरी दुल्हन
मेरी दुल्हन
मैं भीगा उसकी आँखो से
निकले हर इक मोती से.!
जब मेरे सीने पर वो
सर रख चुपके से रोती है.!
अपनी सारी पीड़ाओं को
हँसते-हँसते खोती है ll
जोड़े में सिमटी दुल्हन को
छोड़ अकेला आयाहूँ ,
उन कोमल से हाथों में
परिवार सौंप के आयाहूँ ,
मेरे घर को अपनाकर
वह फसल प्रीत की बोती है.!
अपनी सारी पीड़ाओं को
हँसते-हँसते खोती है ।।
कुछ विरह के आँसू होते,
कुछ एकल रातो के सपने
चूम के खत मेरा पढ़ती
हर अक्षर में दिखते अपने
फिर मेरी फोटो से
एकल बतियाँ करके सोती है.!
अपनी सारी पीड़ाओं को
हँसते-हँसते खोती है ll
जब आया मैं सरहद पर से
वो चौखट पर खड़ी मिली
लिये हाथ में पूजा थाली
दीपक बाती जली मिली ,
प्रीति-रीति की राह बनाकर
फूल पातिया बोती है.!
अपनी सारी पीड़ाओं को
हँसते-हँसते खोती है ll
जीवन विषम गरल पीकर
उसने मुझको अपनाया है ,
फिर ख़ुद ही सपने बुनकर
स्वप्निल संसार बनाया है ,
हँसती रहती हर दम हर पल
पर मन ही मन रोती है.!
अपनी सारी पीड़ाओं को
हँसते-हँसते खोती है ll
बन जवाब उसकी पाती का
लिपट तिरंगे में आया ,
देख मुझे अंदर भागी
यूँ लगा मनाने मैं आया ,
जब घर में कोलाहल हो
वो बीज शान्ति का बोती है.!
अपनी सारी पीड़ाओं को
हँसते-हँसते खोती है ll
राघव दुवे ‘रघु’