—–मेरी खिड़की से आसमान का छोटा टुकड़ा—–
मेरी खिड़की से आसमान का छोटा सा टुकड़ा दिखता है।
उसमे एक चाँद है जो बेपनाह चमकता है।
देखा करता हूं ओट से छुपके उसको
नज़रों में मेरी रहा करता है।
तन्हा है वो भी मेरी तरह ही अनेक सितारों में
सोचकर यही दिल जिया करता है।
पाबन्द है वक़्त का बहोत मेरे लिए रोज
बड़ी दूर से निकल पड़ता है।
बदले मौसम हर घड़ी चाहे वो ना बदलता है।
बैठ जाता हूँ बस यूं ही निहारने उसको
वो भी शायद मुझको देखा करता है।
जुड़ जाता है कुछ रिश्ता नाता उससे मेरा
फिर बेवजह ही उससे दिल लगता है।
देखकर उसको जागती है दिल मे उमंग नई
वो भी प्रेम की इस मौन भाषा को समझता है।
रंग बदलते है इस दुनिया के लेकिन वो हरदम
एक सा बनता है।
रख लेता है शायद वो भी स्नेह को सहेजकर
यही सोचकर दिल सम्भलता है।
दिखला जाता है इक नया रंग जीने का
आहिस्ते से फिर अलग रूप में सिमटता है
समाकर निशा के आगोश में चाँदनी बिखेरता है।
भोर होते है विदा ले निकल पड़ता है।
कविता चौहान
स्वरचित एवं मौलिक