‘मेरी खामोशी को अब कोई नाम न दो’
‘मेरी खामोशी को अब कोई नाम न दो’
प्रेम सच्चा हर पल तुमसे जी भर किया,
न जाने तुमने फिर क्यों बड़ा दर्द दिया?
समझ न सकी तुम मेरी खामोशियों को,
खामोश रहकर हर पल दर्द का घूँट पिया।
सच्चा प्रेम था मेरा अब इलज़ाम न दो।
मेरी खामोशी को अब कोई नाम न दो।।
आंखों ही आँखों में तुमसे जवाब मांगा,
बस एक सुन्दर सा तुमसे खाब मांगा,
वफा मैंने हर पल की ईश्क की राहों में,
फिर क्यों मेरे प्यार का हिसाब मांगा?
कर्मों का मेरे मुझे ऐसा अंजाम न दो।
मेरी खामोशी को अब कोई नाम न दो।।
ईश्क में तेरे हो गया मदहोश सा हूँ,
न जाने फिर भी क्यों खामोश सा हूँ?
तीर तूने नज़रों से चलाए बेरहम ऐसे,
होश में आज भी हुआ बेहोश सा हूँ।
हो जाऊँ फिर से बेहोश ऐसा जाम न दो।
मेरी खामोशी को अब कोई नाम न दो।।
ऐसा कौन सा मैंने कसूर किया?
ज़ख्मों को भी तुमने नासूर किया।
आँखें पढ़ी थी मैंने चाह तो थी थोड़ी,
फिर इश्क मेरा क्यों नामंजूर किया?
रह जाऊँ प्यासा सनम ऐसी शाम न दो।
मेरी खामोशी को अब कोई नाम न दो।।
हर लम्हा आज भी दिल चुरा जाती हो,
खाबों में करीब अपने बुला जाती दो।
चाहती हो नज़दीकियाँ और दूरियाँ भी,
जाने क्यों बेवजह दिल धड़का जाती हो।
दिल में हो तुम करीब आने का पैगाम न दो।
मेरी खामोशी को अब कोई नाम न दो।।
सुशील भारती, नित्थर, कुल्लू (हि.प्र.)