मेरी खामोशियों के नज़्म
ख़ामोश रहती हूं फिर भी मैं नज़्म लिखती हूं
अनकही बातें भी सब की बखूबी मैं समझती हूं
ख़ामोश रहती हूं फिर भी मैं नज़्म लिखती हूंं।।
कभी चित्त कहता है कहीं कोसों दूर चली जाती
अगर सोचती अंत:करण से तो मैं नि: शब्द हो जाती
ख़ामोश रहती हूं फिर भी मैं नज़्म लिखती हूं।।
कम्बख़त ये बीतते पल रोज मुझे मार जाती है
और क्या लिखूं मैं,
मेरी ही लेखनी मेरी बार – बार आजमाइश कराती है
ख़ामोश रहती हूं फिर भी मैं नज़्म लिखती हूं।।
अपनी मन की धुन को लिखने में रहती हूं
चंद अल्फाजों में ही मैं सबकुछ सर्वदा कहती हूं
हां, खामोशियों से ही मैं नज़्म लिखती हूं।।
***************संगीता**********