मेरी कारुणिक व्यथा
रेस का घोड़ा जब-जब दौड़ा।
सबको उसने पीछे छोड़ा।।
आता रहा हमेशा प्रथम
विदित हो रहा था मानो प्रथम आने की खा ली हो उसने कसम।।
कहता थक चुका हार चुका मैं अब यूँही दौड़ते-दौड़ते।
दौड़ पाऊँ मैं कब तक यूँही तड़पते-तड़पते।।
रोता छटपटाता आँसू बहाता।
मगर भला क्या कभी यूँही सुस्ता पाता।।
दौड़ता जब -जब कितने हो गए बलिहारी।
विदित हो रहा जैसे स्वयं रिपुनाश को हों तत्पर त्रिपुरारि।।
दौड़ लगाता जाता प्रबल भला क्या टिके निर्बल ।
जीवन पथ पर है अब अग्रसर।
विदित हो रहा खग हो कोई अपर।।
हार चुका जो जीवन पथ पर।
विनय करता वो अब तो दो विश्राम ।
जीवन पथ पर अग्रसर था मैं जब बलवान ।
अब टूट -चुका हार चुका होकर लहुलूहान।
अश्रु बूँदों से कब तक सिंचू धरती ।
कब तक क्यों मेरी काया हो तड़पती।।
दरख्त अब शाख से हो चुका अलग।
मुझको ,…मेरी आत्मा को भी होने दो विलग।।