मेरी कलम मेरी कविता
ज़िंदगी कहाँ इतनी आसान थी
क्षितिज को छूने की चाह थी
मालूम था वो सिर्फ़ नज़रों का धोखा है
शिथिल सी साँसो में ना उमंग थी
ना सूने जीवन की कोई राह थी
लेकिन आरज़ू फिर भी यही जवाँ थी …..
एक दिन न जाने कहाँ से तुम आए
वीरान पड़े जीवन को गुलज़ार करने
मेरे धूमिल परिसर को बाग़बान करने ….
दिल एक बार फिर धड़कने लगा
रात दिन तुम्हारा ख़याल भाने लगा
जीने का मक़सद दिखने लगा ….
बेलगाम सी होती ज़िंदगी मानो सवरने लगी
कोरे काग़ज़ में रंग भरने लगी
मेरी प्यारी क़लम
तुम और तुम्हारी कविता मदहोश सा मुझे करने लगी…..