मेरी एक सहेली चाय
जिम्मेदारी की चादर हटाती हूं
सर्दी की सुबह की कहानी सुनाती हूं,
कुछ पल ,हां,बस कुछ पल जिम्मेदारी से
मैं अपने लिए निकालती हूं….
बना कर अदरक मसाले वाली चाय
भर प्याली चाय संग बतियाती हूं।
महकती चाय के एक घूंट से ताजगी पाती हूं,
और ,,,चाय मेरी मैं चाय की दीवानी बन जाती हूं।
तभी कहती है चाय मुझसे…
सखी, तुम कैसे सब जिम्मेदारी निभाती हो?
अपने हुनर से सबको खुश कैसे रख पाती हो?
कभी रसोई घर में आ व्यंजन पकाती है,
कभी वाशिंग मशीन ने निकट आ जाती है,
कभी छत पर कपड़े सुखाने पहुंच जाती है।
थोड़ी देर में ही घर को साफ चमकाती हो,
हर एक सदस्य की एक आवाज पर भी
दौड़ती चली जाती है !!
धर्म-कर्म भी कर प्रभु को
भावभक्ति गीत से रिझाती हो,
सुखी रहें मेरा परिवार
यही कामना करती हो।
सुन कर मैं मुस्कराई,,,,
आंखें नम कर बुदबुदाई,
तुम हो ना संग मेरे मेरी सहेली,
मेरी अदरक मसाला वाली चाय की प्याली
साथ बैठ कर मेरा हालचाल जो पूछती,
मेरे तन-मन की थकावट भगाती है,
शायद तभी तो मैं यह सब कर पाती हूं।
बतियाते -बतियाते याद आया
अभी तो सारे काम करने की बारी है।
डियर चाय ,अलविदा
शाम चार फिर मिलेंगे
बची बातें करेंगे
कह हम अपने अगले काम में लग जाती हूं।
इत्र से नहीं अपने व्यवहार से
खुद को महकाती हूं।
-सीमा गुप्ता,अलवर राजस्थान