. . . मेरी इक गज़ल
ऐ मेरी ज़ानु , मैं क्यां ज़ानु ? तु युं हसती क्यूं हैं ?
गैर झुठी मुस्कुराहट पे युं फ़सती क्यूं हैं ?
हमने तो फ़ुलों की रंगीन सेज़ सज़ायी थी ,
ऐ रात अब काली नागिनसी ड़सती क्यूं हैं ?
इक – इक इट ज़ोड़ी प्यारे ताज़महल की ,
अब सुनसान मशान में मेरी बस्ती क्यूं हैं ?
बेशक बसाना था बहकी – बहकी बाहों में ,
अब इन आँख़ों में लहरों की यूं मस्ती क्यूं हैं ?
उससे ही सुना था , प्यार में सौंदा नहीं होता ;
तो अब दिल की किंमत इतनी सस्ती क्यूं हैं ?
उसे छुआँ तो हंगामा , युं ना हूआँ तो हंगामा ;
वो मासूम फ़िर , गैर आगोश कसती क्यूं हैं ?
कसम ख़ाई साहिल की , सौगंध मंजिल की ;
मज़धार में मेरी तुटी – फ़ुटी युं कश्ती क्यूं हैं ?
ख़ता थी , उस हँसी को मुस्कान समझ बैठे ;
फ़िर भी , वो संगदिल दिल में बसती क्यूं हैं ? . . .
– शायर : प्रदिपकुमार साख़रे
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