“मेरी आज की परिकल्पना “
“मेरी आज की परिकल्पना ”
शब्द और वाक्य को उकेरने की कला को सब स्वीकार करते हैं ! भाषा और साहित्य जब शालीनता के आभूषणों से अलंकृत हो जाते हैं तो अद्भुत रस उत्पन्य हो जाता है ! ताली बजाना, अँगूठा दिखाना और प्रणाम वाली तस्वीर पोस्ट करना आत्मीयता का बोध कभी भी नहीं बन सकता !
@ डॉ लक्ष्मण झा परिमल