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30 Oct 2024 · 1 min read

“मेरी आज की परिकल्पना “

“मेरी आज की परिकल्पना ”
शब्द और वाक्य को उकेरने की कला को सब स्वीकार करते हैं ! भाषा और साहित्य जब शालीनता के आभूषणों से अलंकृत हो जाते हैं तो अद्भुत रस उत्पन्य हो जाता है ! ताली बजाना, अँगूठा दिखाना और प्रणाम वाली तस्वीर पोस्ट करना आत्मीयता का बोध कभी भी नहीं बन सकता !
@ डॉ लक्ष्मण झा परिमल

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